तेरी पहचान भी न खो जाए कहीं |
इतने चेहरे ना बदल, थोड़ी सी शोहरत के लिए ||
फुरसत में करेंगें तुझसे हिसाब - ए - जिंदगी |
अभी उलझे है हम, खुद को ही सुलझाने में ||
कटी पतंग का रूख था, मेरे घर की तरफ.....
मगर उसे भी लूट ले गये, ऊँचे मकान वाले.....
हादसों से तुम अगर घबराओगे,
एक दिन खुद हादसा बन जाओगे...
जानते हो पत्थरो का शहर है, फिर
किस गली से आईने ले जाओगे...
समझते रहते हो सबको अपना मगर ,
अपनी तन्हाई कहा ले जाओगे...
बहुत दूर है मेरे शहर से तेरे शहर का किनारा;
फिर भी हम हवा के हर झोंके से तेरा हाल पूछते है।
चढ़ जाए तो फिर उतरता ही नहीं कमबख्त |
यह इश्क भी गरीब के क़र्ज़ जैसा है ||
हर वक़्त जिंदगी से गिले शिकवे ठीक नहीं...
कभी तो छोड़ दो कश्ती इन मौजो के सहारे...
तेरी नेकी का लिबास ही
तेरा बदन ढकेगा ऐ बंदे...
सुना है ऊपर वाले के घर
कपड़ों की दुकान नहीं होती...
हर बात पे रंजिश, हर बात पे "हिसाब" जैसे
हमने "इश्क" नहीं, "नौकरी" कर ली हो तेरी ||
कहने को तो "हमदर्दों" की कमी नही है |
और हर "दर्द" इन हमदर्दों की "हमदर्दी" है ||
चंद सिक्को में बिकता है यहाँ ईमान लोगो का |
कौन कहता है मेरे देश मे महँगाई बहुत है ||
मोहब्बत आजमानी हो, तो बस इतना ही काफी है |
जरा सा रूठ कर देखो, मनाने कौन आता है ||
वक़्त भी लेता है करवटें न जाने क्या क्या ।
उम्र इतनी तो नहीं थी जितने सबक सीख लिए हमने...।।
मस्जिद तो हुई हासिल हमको,
खाली ईमान गंवा बैठे ।
मंदिर को बचाया लढ-भीडकर,
खाली भगवान गंवा बैठे ।
धरती को हमने नाप लिया,
हम चांद सितारों तक पहुंचे ।
कुल कायनात को जीत लिया,
खाली इन्सान गंवा बैठे ।
मजहब के ठेकेदारों ने आज फिर हमे युं भडकाया ।
के काजी और पंडित जिन्दा थे,
हम अपनी जान गंवा बैठे ।
मै न बदला, मगर जमाना बदल गया ।
जानी गलियों में , मकान पुराना बदल गया...।।
बुलंदियों की ख्वाइशें तो बहुत है मगर...
दूसरों को रौंदने का हुनर कहाँ से लायें ||
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1 टिप्पणी:
मस्त !
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