जगाच्या कानाकोपऱ्यात भटकताना मातृभूमीचे बंध जपण्याचा अन् मनाच्या विविधरंगी, बहुअंगी स्पंदनाना व्यक्त करण्याचा एक छोटासा प्रयत्न! वाचण्याचा छंद जोपासताना बरचसं वाड्मय वेगवेगळ्या ठिकाणांहून संग्रहीत केलेलं आहे.
बुधवार, २१ ऑक्टोबर, २०१५
रविवार, १५ फेब्रुवारी, २०१५
दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ - मिर्ज़ा ग़ालिब
दर्द मिन्नत-कशे-दवा न हुआ
(मिन्नत-कशे-दवा = obliged to medicine)
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
हम कहां किस्मत आजमाने जाएँ
तू ही जब खंजर आजमा न हुआ
कितने शीरीं हैं तेरे लब के रकीब
गालियाँ खाके बेमजा न हुआ
(शीरीं – sweet)
है खबर गर्म उनके आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ
(बोरिया = mat )
जान दी, दी हुई उसी की थी
हक तो यूँ है कि हक अदा न हुआ
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
आज ‘ग़ालिब’ गज़लसरा न हुआ
- मिर्ज़ा ग़ालिब
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